Motijheel ke Raja: लखनऊ का मोतीझील क्षेत्र पिछले एक दशक से गणेश चतुर्थी के अवसर पर एक भव्य और श्रद्धा से परिपूर्ण आयोजन का गवाह बनता आ रहा है। हर वर्ष, इस पावन अवसर पर ‘मोतीझील के राजा’ के नाम से प्रसिद्ध गणपति प्रतिमा का आगमन होता है, जो स्थानीय जनमानस की गहन आस्था और भक्ति का प्रतीक बन चुकी है। इस आयोजन की शुरुआत करीब दस वर्ष पहले कुछ स्थानीय युवाओं की पMotijheel ke Rajaहल पर हुई थी, लेकिन आज यह कार्यक्रम एक विशाल सांस्कृतिक उत्सव का रूप ले चुका है।
धार्मिक आस्था और भव्यता का संगम
गणेश चतुर्थी के दिनों में मोतीझील क्षेत्र पूरी तरह से भक्तिमय वातावरण में डूबा रहता है। श्रद्धालुओं की भारी भीड़, गूंजते भजन, ढोल-नगाड़ों की धुन और आरती की गूंज इस पूरे क्षेत्र को एक अलौकिक अनुभव प्रदान करती है। ‘मोतीझील के राजा’ की स्थापना के साथ ही यहां दस दिनों तक विशेष पूजा-अर्चना, अनुष्ठान और धार्मिक गतिविधियों का आयोजन होता है। श्रद्धालु दूर-दूर से यहां दर्शन के लिए आते हैं और अपने परिवार की सुख-समृद्धि की कामना करते हैं।
सजावट और सांस्कृतिक कार्यक्रम बनाते हैं आयोजन को खास
स्थानीय आयोजन समिति इस पर्व को विशेष बनाने के लिए महीनों पहले से तैयारियों में जुट जाती है। विशाल पंडाल, आकर्षक लाइटिंग, थीम-आधारित झांकियां और पारंपरिक सजावट इस आयोजन को भव्यता प्रदान करती हैं। इसके अलावा, सांस्कृतिक कार्यक्रमों की एक श्रृंखला भी आयोजित की जाती है जिसमें नृत्य, नाटक, भजन संध्या और विभिन्न प्रतियोगिताएं होती हैं। इन कार्यक्रमों में स्थानीय कलाकारों के साथ-साथ शहर के अन्य हिस्सों से भी लोग भाग लेते हैं, जिससे आयोजन की गरिमा और भी बढ़ जाती है।
सामाजिक समरसता और सांस्कृतिक विरासत का परिचायक
‘मोतीझील के राजा’ सिर्फ एक धार्मिक आयोजन नहीं रह गया है, बल्कि यह आज लखनऊ की सांस्कृतिक पहचान का भी अहम हिस्सा बन चुका है। यह पर्व विभिन्न समुदायों को जोड़ने, युवाओं को सांस्कृतिक मूल्यों से जोड़ने और सामाजिक एकता का संदेश देने का कार्य करता है। यह आयोजन क्षेत्रवासियों के लिए गर्व का विषय बन चुका है और हर वर्ष इसका विस्तार और आकर्षण बढ़ता जा रहा है।
सांस्कृतिक आंदोलन
‘मोतीझील के राजा’ का यह उत्सव आज लखनऊ की एक नई परंपरा बन गया है, जो धार्मिक श्रद्धा के साथ-साथ सामाजिक और सांस्कृतिक समरसता का भी प्रतीक है। यह आयोजन यह दर्शाता है कि कैसे एक स्थानीय पहल, जनसहयोग और भक्ति भावना के साथ मिलकर एक सांस्कृतिक आंदोलन का रूप ले सकती है। भविष्य में यह उत्सव और भी व्यापक रूप से लखनऊ की पहचान बन सकता है।

