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जातीय जनगणना: सरनेम बना सबसे बड़ी चुनौती, आसान नहीं आंकड़ों की राह

भारत जैसे विविधतापूर्ण देश में जातीय जनगणना कराना एक अत्यंत जटिल और संवेदनशील कार्य है। दशकों से इस विषय को लेकर समाज और राजनीति दोनों में बहस जारी है। वर्ष 1931 के बाद पहली बार 2011 में तत्कालीन मनमोहन सिंह सरकार ने सामाजिक, आर्थिक और जातीय जनगणना (SECC) कराई थी, लेकिन इसके आंकड़ों को सार्वजनिक नहीं किया जा सका। इसका मुख्य कारण था – डेटा में गंभीर स्तर की विसंगतियां और तकनीकी गड़बड़ियां।

2011 की जनगणना और आंकड़ों की अस्पष्टता

2011 में की गई SECC में करीब 46 लाख जातियों का उल्लेख हुआ, जबकि देश में मान्यता प्राप्त जातियों की संख्या कुछ हजार ही है। इसका कारण था – लोगों द्वारा अपनी जाति को अलग-अलग नामों से दर्ज कराना। उदाहरण के लिए, एक ही जाति को किसी ने उपनाम (सरनेम) के आधार पर लिखा, किसी ने उप-जाति के नाम से, तो किसी ने वर्ण के रूप में। इससे आंकड़े बेहद बिखरे और अव्यवस्थित हो गए, जिनका विश्लेषण करना लगभग असंभव हो गया। यही वजह रही कि इन आंकड़ों को अब तक सार्वजनिक नहीं किया गया।

सरनेम बनी सबसे बड़ी समस्या

जातीय जनगणना की राह में सबसे बड़ी अड़चन ‘सरनेम’ यानी उपनाम है। भारत में कई उपनाम विभिन्न जातियों में पाए जाते हैं। जैसे “शर्मा”, “पटेल”, “राव”, “कुमार” जैसे उपनाम अलग-अलग राज्यों और समुदायों में अलग पहचान रखते हैं। इसी के चलते जाति की सटीक पहचान करना मुश्किल हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति केवल उपनाम के आधार पर अपनी जाति दर्ज करता है, तो वह जाति की सही श्रेणी में नहीं आ पाता।

मोदी सरकार का रुख और सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा

हाल ही में मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में दायर एक हलफनामे में यह स्पष्ट किया कि वर्तमान जनगणना प्रणाली में जातिगत आंकड़ों को सटीकता से इकट्ठा करना संभव नहीं है। सरकार का तर्क है कि जाति से संबंधित जानकारी जुटाने के लिए अभी जो तंत्र उपलब्ध हैं, वे पर्याप्त नहीं हैं और इससे आंकड़ों में गंभीर त्रुटियां आ सकती हैं। साथ ही यह भी कहा गया कि वर्तमान जनगणना का उद्देश्य जातीय आंकड़े एकत्र करना नहीं है।

राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव

जातीय जनगणना को लेकर देश में राजनीतिक हलचल भी तेज रही है। कई क्षेत्रीय दल और सामाजिक संगठन इस जनगणना को लागू करने की मांग कर रहे हैं, ताकि नीति-निर्माण में सामाजिक न्याय के सिद्धांतों को मजबूती मिल सके। लेकिन सरकार का रुख यह दर्शाता है कि जब तक प्रक्रिया को पारदर्शी और तकनीकी रूप से मजबूत नहीं किया जाता, तब तक यह कार्य जोखिमभरा हो सकता है।

स्पष्टता और तकनीक के बिना असंभव है जातीय गणना

जातीय जनगणना की मांग भले ही जोर पकड़ रही हो, लेकिन इसकी राह में तकनीकी, प्रशासनिक और सामाजिक चुनौतियां बहुत बड़ी हैं। उपनामों की विविधता, जातियों की पहचान में भ्रम और आंकड़ों की सटीकता की कमी – ये सभी कारक इसे एक अत्यंत कठिन कार्य बना देते हैं। जब तक स्पष्ट दिशा-निर्देश, उन्नत तकनीक और सर्वमान्य श्रेणियां तय नहीं होतीं, तब तक जातीय जनगणना सिर्फ एक अधूरी कोशिश बनकर रह सकती है।

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